व्यक्तिगत परिचय
मायावती ने 1975 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कालेज से कला में स्नातक की डिग्री हासिल की, 1976 में उन्होंने मेरठ विश्वविद्यालय से बी॰एड॰ और 1983 में दिल्ली विश्वविद्यालय से एल॰एल॰बी॰ की पढ़ाई की। सन् 1977 में कांशीराम के सम्पर्क में आने के बाद मायावती ने एक पूर्ण कालिक राजनीतिज्ञ बनने का निर्णय ले लिया। जब सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुई थी, तब मायावती कांशीराम के नेतृत्व में उनकी कोर टीम का हिस्सा रहीं।
राजनीती में प्रवेश
मायावती ने अपना पहला चुनाव साल 1984 में उत्तर प्रदेश में कैराना लोकसभा सीट से लड़ा था। इसके बाद दूसरी बार साल 1985 में उन्होंने बिजनौर और फिर 1987 में हरिद्वार से चुनाव लड़ा। साल 1989 में मायावती को बिजनौर से जीत हासिल हुई। मायावती को कुल 183,189 वोट मिले और हार जीत का अंतर 8,879 वोटों का था। 1995 में प्रथम भारतीय दलित महिला के रूप में उत्तर प्रदेश राज्य की मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली। सख्त शासक की छवि वाली मायावती उत्तर प्रदेश के इतिहास में चार बार मुख्यमंत्री के पद पर पहुंचने वाली वह पहली नेता हैं।
2012 के बाद अब तक नही मिली सत्ता
बसपा प्रमुख मायावती को यूपी की सत्ता से बेदखल हुए 2022 के विधानसभा चुनाव होने तक 10 साल पूरे हो जाएंगे। इस एक दशक के अंदर पार्टी में 100 से अधिक दिग्गज नेताओं ने बहुजन समाज पार्टी का साथ छोड़ा। 2012 में जब समाजवादी पार्टी ने उसे सत्ता से बेदखल किया तो वह 80 सीटें लेकर मुख्य विपक्षी पार्टी बनी। लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर में यह 'हाथी' भी बह गया। 2017 आते-आते इस पार्टी की हैसियत महज 19 विधायकों तक सिमट गई। इसके कुछ ही समय बाद विधानसभा उपचुनाव हुए तो बीएसपी अपनी सीट भी गंवा बैठी और इसके विधायकों का आंकड़ा घटकर 18 रह गया। आज की तारीख में उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहनजी की पार्टी की ताकत अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल और कांग्रेस से भी कम हो गई है। वह ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा के बराबर आ गई है।
बहुजन समाज पार्टी का वोट बैंक दूसरी पार्टियों में जा चुका है, साथ ही नेतृत्व के लिए एक ही नाम नजर आता है बहन कुमारी मायावती का और यही कारण है कि आज बसपा के सामने कई चुनौतियाँ हैं-
विधायकों का पार्टी छोड़ने का सिलसिला
2022 में जून से लेकर अब तक बहुजन समाज पार्टी से कुल 10 विधायक या तो निकालकर बाहर किए जा चुके हैं या फिर उन्होंने खुद ही पार्टी के साथ काम नहीं करने का फैसला किया है। योगी आदित्यनाथ सरकार ने राज्य में माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई करके जो माहौल बनाया है, उसके चलते विधायक मुख्तार अंसारी को पार्टी पहले ही दूर कर चुकी है। यानी सुखदेव राजभर के निधन के बाद पार्टी के पास प्रभावी तौर पर चार ही विधायक बचे हैं।
दलित वोट बैंक में सपा की सेंधमारी
संविधान दिवस के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में शुक्रवार को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव शुक्रवार को लखनऊ के अंबेडकर स्मृति उपवन में जिस मंच पर मुख्य अतिथि बनकर पहुंचे थे, वह भी बसपा सुप्रीमो के लिए कम टेंशन की वजह नहीं है। इस मंच पर डॉक्टर भीम राव अंबेडकर के पौत्र प्रकाश अंबेडकर तो थे ही, भाजपा की पूर्व दलित सांसद सावित्रीबाई फूले को जिस अंदाज में प्रोजेक्ट किया गया, वह भी उनके दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की रणनीति है।
चंद्रशेखर आजाद की भूमिका
चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि दलितों को उनकी आबादी के हिसाब से भागीदारी देने वाले राजनीतिक दल से गठबंधन होगा, यूपी में 85 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं, अगर इन सीटों पर चंद्रशेखर रावण अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो वो भी एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी की तरह ही अपने आप वोटकटवा बन जाएंगे, जो की बसपा के लिए नुकसानदेह साबित होगा।
प्रचार-प्रसार
यूपी चुनाव 2022 में बसपा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, सी-वोटर्स के 15 दिसंबर के आकड़ों के हिसाब से यूपी में सीएम की पसंद में मायावती को यूपी की 14% जनता मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती है वहीं दूसरी ओर योगी आदित्यनाथ को 42% और अखिलेश यादव को 34% लोग पसंद करते हैं। जिस हिसाब से उत्तर प्रदेश की राजनीति के दाव-पेंच को देखकर और जनता के हिसाब से जो आकड़े सामने आ रहे हैं उससे मालूम पड़ रहा है की बसपा सुप्रीमो बहन मायावती सिर्फ यूपी 2022 में जीत के लिए नहीं बल्कि अपनी अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ेंगी।
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