परंतु विगत कुछ वर्षों में लेखकों और बुद्धिजीवियों का एक तबका उन्हें जातिवादी साबित करने पर लगा हुआ है. ये वर्ग गांधीजी के शुरुआती लेखन के चुनिंदा अंशों को कोट करके उन्हें जाति व्यवस्था का समर्थक बता रहा है. गांधीजी के जाति पर विचारों को समझने के लिए उन्हें समग्र रूप में देखने-पढ़ने की आवश्यकता है. जाति पर उनके विचारों में समय के साथ-साथ आमूल-चूल परिवर्तन आए. हालांकि अस्पृश्यता (छूआछूत) का उन्मूलन हमेशा से ही उनके प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल रहा... फिर भी अपने लेखन के शुरुआती दौर में वे जाति व्यवस्था के समर्थक रहे. 1921 में अपनी पत्रिका 'नवजीवन' में उन्होंने लिखा - “अगर हिंदू समाज अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है तो वह इसलिए क्योंकि यह जाति व्यवस्था पर आधारित है.” परंतु इसके बाद भी उनका यह मानना था कि जातियों के बीच कोई पदानुक्रम नहीं होना चाहिए और सभी जातियों को समान माना जाना चाहिए.
इसके अतिरिक्त उन्होंने कार्य पर आधारित वर्णाश्रम-व्यवस्था से भी सहमति व्यक्त की थी. परंतु हमें इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है कि ये गांधीजी के शुरुआती लेखन के समय की बात है. वे उम्रभर सीखते-पढ़ते रहे और आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने समय के साथ अपने विचारों में परिवर्तन भी किए. गांधीजी स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अस्पृश्यता की समाप्ति को आवश्यक मानते थे. उनके लिए स्वराज न केवल भारत से अंग्रेजों का बाहर जाना था बल्कि समाज की गुलामी से मुक्ति भी थी.
1921-27 के मध्य उन्होंने दलित बच्चों के सार्वजनिक विद्यालयों में प्रवेश की मांग की. गांधीजी ने 1927 के महाड़ सत्याग्रह का भी खुलकर समर्थन किया. यह आंदोलन डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के महाड़ नामक स्थान पर हुआ था. इस सत्याग्रह के अंतर्गत हजारों की संख्या में अछूत कहे जाने वाले लोगों ने सार्वजनिक तालाब (चावदार) में पानी पीया. इससे गुस्साए रुढ़िवादी सोच के लोगों ने दलितों पर लाठियों से हमले किए. उन्होंने छूआछूत का विरोध करने वाले हर हिंदू से महाड़ के साहसी दलितों का बचाव करने की सलाह भी दी थी. गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि - “अस्पृश्यता के जीवित रहने की तुलना में मैं हिंदू धर्म का मर जाना पसंद करूंगा.”
1927-32 के मध्य उन्होंने हिंदुओं से कहा कि अछूतों को भी अन्य हिंदुओं के समान सभी मंदिरों में प्रवेश का अधिकार होना चाहिए. वर्ष 1925 में गांधीजी ने वैकोम में एक मंदिर और ब्राह्मणों के निवास-स्थान से सटी सार्वजनिक सड़कों के सभी के लिए उपयोग से इंकार के खिलाफ सत्याग्रह किया. वे व्यक्तिगत रूप से केरल के वैकोम गए, जहां उन्होंने रूढ़िवादी ब्राह्मणों के साथ धर्मग्रंथों की उनकी व्याख्या पर बहस की और अंततः मंदिर के बगल की सड़कों को सभी के लिए खोल दिया गया. इसी क्रम में 1932 में अछूतों के लिए मालाबार के गुरुवायुर मंदिर को खोलने के सवाल पर उन्होंने आमरण अनशन किया. मार्च 1933 में 'हरिजन बंधु' में वे लिखते हैं - “मुझे अपनी सारी ऊर्जा अस्पृश्यता के रावण को मारने में लगानी चाहिए.” 1933 में ही जेल से रिहाई के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से अवकाश लेकर 'हरिजन यात्रा' शुरु की जिसमें अगले नौ महीने तक देशभर में जा-जाकर छूआछूत के खिलाफ अभियान चलाया. इस यात्रा के दौरान गांधीजी ने स्वयं द्वारा स्थापित 'हरिजन सेवक संघ' के लिए धन इकट्ठा करने का कार्य भी किया.
अप्रैल 1933 में गांधीजी ने अपने अस्पृश्यता विरोधी अभियान में जोर देकर इस बात को रेखांकित किया कि - “वर्ण को केवल जन्म से ही निर्धारित नहीं किया जा सकता है.” क्यूंकि उनके अनुसार किसी की भी जाति उसके गुणों और योग्यताओं के संयोजन से निर्धारित होती है, जन्म या आनुवंशिकता से नहीं. इस प्रकार गांधीजी ने एक झटके में वर्ण या जाति व्यवस्था के सार को यह कहकर खारिज कर दिया कि यह जन्म या आनुवंशिकता से निर्धारित नहीं होती है. उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से गांवों में जाकर हरिजनों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के लिए कार्य करने का आग्रह भी किया.
16 नवंबर 1935 को 'हरिजन' में छपे अपने लेख में गांधीजी जाति और जाति व्यवस्था की समाप्ति की बात लिखते हैं. उनके इस लेख का शीर्षक ही होता है - Caste Has To Go. इस समय तक वे जाति का बचाव करना छोड़ चुके थे और इस व्यवस्था की समाप्ति के लिए अपने विचारों में मौलिक चिंतक-क्रांतिकारी हो गए थे. अपने अस्पृश्यता विरोधी आंदोलनों के दौरान गांधीजी को हर कदम पर रुढ़िवादियों और कट्टरपंथियों का विरोध झेलना पड़ा. उनके खिलाफ अनेकों प्रदर्शन भी हुए. 1934 में पूना में उनपर जानलेवा हमला भी किया गया था. जब उनके अस्पृश्यता विरोधी अभियान पर इन रुढ़िवादियों ने मनुस्मृति का संदर्भ देकर हमला करने की कोशिश की तो जवाब में गांधीजी ने कहा कि - “हिंदू धर्म, धर्म के नाम पर अनेक पापों से भर गया है. ऐसी रूढ़िवादिता को मैं पाखंड कहता हूं. आपको खुद को इस पाखंड से मुक्त करना होगा, जिसका फल आप खुद भुगत रहे हैं. मनुस्मृति या ऐसे धर्मग्रंथों से इस रूढ़िवादिता के पक्ष में श्लोक संदर्भित करना बेकार की बात है. बहुतेरे श्लोक अप्रमाणिक हैं और उनमें से तमाम तो कतई बेमतलब है.”
गांधीजी और डॉ. अंबेडकर के मध्य सन 1932 में हुए 'पूना पैक्ट' को लेकर वाद-विवाद होते रहते हैं. इसके माध्यम से गांधीजी को घेरने की कोशिशें भी की जाती हैं. इस मामले पर लेखक, इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय का कहना है कि - “अंततः जो समझौता हुआ उसमें पृथक निर्वाचन की व्यवस्था तो खत्म कर दी गई लेकिन प्रांतीय विधानमंडलों में अरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 और केंद्रीय विधानमंडल में 18 प्रतिशत कर दी गई तथा संयुक्त निर्वाचन की प्रक्रिया तथा प्रांतीय विधानमंडल में प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने की व्यवस्था को मान्यता दी गई, साथ ही दलित वर्ग को सार्वजनिक सेवाओं तथा स्थानीय संस्थाओं में उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर उचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई. ध्यान देने योग्य बात है कि गांधी ने दलितों को उनकी आबादी के अनुसार प्रतिनिधित्व की बात की थी और यह अवार्ड में दी गई सीटों से अधिक संख्या थी.” इस समझौते पर दस्तखत के तुरंत बाद डॉ. अंबेडकर ने कहा कि वो गांधी और अपने बीच 'बहुत कुछ समान' पाकर चकित थे, बुरी तरह चकित. अगर आप खुद को पूरी तरह दलित वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित कर देते हैं, डॉ. अंबेडकर ने गांधीजी से कहा, आप हमारे नायक बन जाएंगे.
जनवरी 1947 में जब वे पूर्वी बंगाल के नोआखाली में सांप्रदायिक दंगों को शांत कराने के लिए जाते हैं तो वहां की उच्च जाति की महिलाओं से कहते हैं कि - “अपने साथ भोजन करने के लिए रोज एक हरिजन को आमंत्रित करें या कम से कम हरिजन को खाने से पहले भोजन या पानी को छूने के लिए कहें. अपने पापों के लिए प्रायश्चित करें.” इस मसले पर राजमोहन गांधी का कहना है कि अगर गांधीजी सीधे जाति व्यवस्था पर हमला करते तो लोग उनके साथ नहीं खड़े होते इसलिए उन्होंने इस व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी, छूआछूत पर प्रहार कर इसे कमजोर करने की कोशिश की. गांधीजी का यह मानना था कि बिना सामाजिक सुधारों के यदि राजनैतिक स्वतंत्रता मिली तो सत्ता का हस्तांतरण मात्र संवेदनहीन ब्रिटिश शासन से संवेदनहीन भारतीय सत्ता को होगा. अतः राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ ही साथ सामाजिक सुधार भी अत्यंत आवश्यक हैं.
'यंग इंडिया' में गांधीजी ने दलितों के समर्थन में लिखा था कि - “यदि हम भारत की आबादी के पांचवें हिस्से को स्थाई गुलामी की हालत में रखना चाहते हैं और उन्हें जान-बूझकर राष्ट्रीय संस्कृति के फलों से वंचित रखना चाहते हैं, तो 'स्वराज' एक अर्थहीन शब्द मात्र होगा.” गांधीजी ने अंतर्जातीय विवाह का भी पुरजोर समर्थन किया. उनका मानना था कि इससे जाति की दीवार खुद-ब-खुद कमजोर होती जाएगी. अप्रैल 1947 में उन्होंने कहा कि वे केवल दलित और गैर-दलित के बीच होने वाली शादियों को ही अपना आशीर्वाद देंगे. जून 1947 में उन्होंने दलित पुरुष या महिला को स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त करने का विचार रखा था. उनका ऐसा मानना था कि जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में ये एक मजबूत प्रतीकात्मक कदम होगा.
30 सितंबर 2020 को इंडियन एक्सप्रेस में The post-truth history of Gandhi's 'racism' नामक शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में KP Shankran लिखते हैं कि - “मिथ्या सत्य के इस दौर में दलितों की ओर से बोलने का दावा करने वाले अरुंधती रॉय जैसे कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा गांधीजी के जाति व्यवस्था के विरुद्ध किए गए कार्यों को खारिज करने की कोशिशें की जा रही हैं. ये तबका गांधीजी के शुरुआती लेखों को अपने एजेंडे के अनुसार चुनिंदा रुप से कोट करके उन्हें जाति व्यवस्था का समर्थक और पोषक घोषित करने के प्रयास कर रहा है. इसी कारणवश दलित आंदोलनों में गांधीजी को आत्मसात नहीं किया जा रहा है.” अंततः यह कहा जा सकता है कि वे ही लोग गांधीजी पर जातिवादी होने का आरोप लगा सकते हैं जो उनके जीवन और लेखन के उस शुरुआती दौर पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं जब वे अपने विचारों को आकार दे रहे थे. 1930 के दशक के बाद से न केवल गांधीजी अपने लेखों में जाति व्यवस्था की समाप्ति की बात कर रहे थे, साथ ही साथ इसके लिए जमीनी स्तर पर अभियान भी चला रहे थे. सामाजिक न्याय और समानता की अवधारणा पर आधारित समाज ही उन्हें सही मायनों में सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
सत्यम सिंह
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं)
0 टिप्पणियाँ